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संस्कृति : सत्ता और स्वाधीनता दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी 9-10 फरवरी 2015

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग एवं भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसन्धान परिषद् के सहयोग से शहीद भगत सिंह महाविद्यालय द्वारा 'संस्कृति : सत्ता और स्वाधीनता' विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया | इस संगोष्ठी में यह बात बार-बार उभर कर आई कि संस्कृति अपने स्वभाव में ही बहुल होती है | बीज वक्तव्य में अशोक वाजपेयी ने इस बात पर इसरार किया कि भारत को उसकी बहुवचनीयता और खुलेपन ने ही बचाया है | आज संस्कृति की इस बहुलता को सबसे बड़ा खतरा बाज़ार द्वारा परोसी जा रही एकरूपता से है | इस एकरूपता से व्यक्ति की गरिमा का क्षरण होता है | इस बात को आगे बढ़ाते हुए मदन सोनी ने कहा कि शब्द और साहित्य की सत्ता तब तक अधूरी है, जब तक वे भूमण्डलीकरण द्वारा पैदा की जा रही परिस्थितियों के प्रति प्रतिकृत नहीं होते | बाज़ार की सत्ता और पितृसत्ता के गठजोड़ पर चिंता ज़ाहिर करते हुए रोहिणी अग्रवाल ने बहुत विस्तार से इस बात पर प्रकाश डाला कि किस प्रकार पितृसत्ता की सांस्कृतिक निर्मितियों को बाज़ार उत्सवधर्मी और लोकप्रिय बना रहा है | श्यौराज सिंह बेचैन ने भी चिंता ज़ाहिर की कि शिक्षा का बाज़ारीकरण दलितों की मुक्ति के मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा है |

अपने बीज वक्तव्य में अशोक वाजपेयी ने सत्ता के अनेक रूपों का ज़िक्र किया | उन्होंने बताया कि सत्ता के भी अंतर्विरोध होते हैं | निहितार्थ संभवतः यह था कि सत्ता के अंतर्विरोधों के जरिए उससे कुछ रचनात्मक करवाया जा सकता है | आलोचना की सत्ता के होने से इन्कार करते हुए प्रभाकर श्रोत्रिय ने आलोचना, सत्ता और रचना को सहधर्मी बताया | हालांकि उनके इस मत से रचना और आलोचना के जटिल सम्बन्ध की पहचान नहीं होती | अभय कुमार दूबे और सुधीर चन्द्र ने रेखांकित किया कि भाषा की स्वाधीनता को अंग्रेजी के वर्चस्व से खतरा है | हिन्दी भाषा की ताकत उसकी संस्कृत से मुक्ति में नहीं है, बल्कि उसके साथ प्रगाढ़ सम्बन्ध में है | भारतीय संस्कृति की बहुलता को रेखांकित करते हुए प्रो. वीरभारत तलवार ने संस्कृति को आजीवक परम्परा से जोड़ते हुए वर्णाश्रम, पुनर्जन्म और वेद पुराण को प्रमाण मानने की मनोवृत्ति से मुक्ति को दलित-चिंतन की स्वतंत्रता बताया | शास्त्र की बहुलता और उसके लोकाधारित होने की बात कहकर इस धारणा का खंडन किया | साथ ही उन्होंने लोक और शास्त्र के संवाद की समृद्ध परम्परा को रेखांकित किया | यहाँ तक कि कलाओं में भी रागों और नवाचार की बहुलता की ओर इशारा किया | रंगमंच इस बहुलता का शानदार उदाहारण है, जो दूसरे उपादानों के सहयोग के बिना संभव ही नहीं है | इन विचारों के साथ यह संगोष्ठी अपने आप में महत्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक रही | विभागाध्यक्ष डॉ. कमलेश कुमारी सहित सम्पूर्ण विभाग और महाविद्यालय के प्राध्यापकों एवं विद्यार्थियों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोग इस संगोष्ठी की सफलता का मूल था | आगे भी इस प्रकार के कार्यक्रमों के आयोजन के लिए हिन्दी विभाग गतिशील और प्रतिबद्ध है |